सुन्धामाता का दिव्य इतिहास
राजस्थान के जालौर जिले की भीनमाल तहसील में जसवन्तपुरा से 12 कि.मी. दूर, दांतलावास गाँव के पास सुन्धानामक पहाड़ है। इसे संस्कृतसाहित्य में सौगन्धिक पर्वत, सुगन्धाद्रि, सुगन्धगिरि आदि नामों से कहा गया है। सुन्धापर्वत के शिखर पर स्थित चामुण्डामाता को पर्वतशिखर के नाम से सुन्धामाता ही कहा जाता है।
सुन्धामाता का मन्दिर सुन्धापर्वत की एक प्राचीन गुफा में स्थित है। लोकमान्यता में सुन्धामाता को अघटेश्वरी कहा जाता है। इस विषय में डॉ. राघवेन्द्र सिंह मनोहर लिखते हैं – अघटेश्वरी से तात्पर्य वह धड़रहित देवी है, जिसका केवल सिर पूजा जाता है। पौराणिक मान्यता के अनुसार दक्ष के यज्ञ के विध्वंस के बाद शिव ने सती के शव को कन्धे पर उठाकर ताण्डवनृत्य किया। तब भगवान् विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। उनके शरीर के अंग भिन्न-भिन्न स्थानों पर जहाँ गिरे वहाँ शक्तिपीठ स्थापित हो गये। सम्भवतः इस सुन्धापर्वत पर सती का सिर गिरा जिससे वे अघटेश्वरी कहलायीं।
सुन्धामाता के अवतरण के विषय में
प्रचलित एक जनश्रुति उल्लेख करते हुए इतिहासकारों ने लिखा है कि ‘बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए
चामुण्डा अपनी सात शक्तियों सहित यहाँ अवतरित
हुई, जिनकी मूर्तियाँ चामुण्डा (सुन्धामाता)
प्रतिमा के पार्श्व में प्रतिष्ठापित हैं।’
सुन्धामाता के मन्दिर-परिसर के प्रथम
भाग में भूर्भुवः स्वरीश्वर महादेव का मन्दिर है। मन्दिर में शिवलिंग स्थापित है।
द्वितीय भाग में सर्वप्रथम सुन्धामाता के मन्दिर में प्रवेश करने हेतु विशाल एवं
कलात्मक प्रवेशद्वार बना है। सीढियाँ चढ़ने पर आगे विशालकाय स्तम्भों पर स्थित सभामण्डप है। मन्दिर में मुख्य गुफा में चामुण्डामाता
(सुन्धामाता) की भव्य प्रतिमा विराजमान है। उनके पार्श्व में ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, वाराही, नारसिंही, ब्रह्माणी और शाम्भवी ये सात शक्तियाँ प्रतिष्ठापित हैं।
अन्य अनेक प्रतिमाएं भी प्रतिष्ठापित हैं ।
अर्थात् मरुभूमि में सुमेरुपर्वत के समान, देवाङ्गनाओं
की क्रीडास्थली सा सुगन्धगिरि ( सुन्धापर्वत ) है जो अनेक प्रकार के वृक्षों के
समूह से रमणीय है। उस ( सुन्धापर्वत ) के शिखर पर राजा ( चाचिगदेव ) ने देवराज
द्वारा पूजित चरणकमलों वाली, अघटेश्वरी नाम से विख्यात, एवं
अपने पूर्वजों द्वारा पूजित चामुण्डा की अर्चना करके इसके मन्दिर में मण्डप बनवाया।
सुन्धामाता जालौर के राजवंश की कुलदेवी है। यहाँ
स्थापित शिलालेख में उन्हें चाचिगदेव के पूर्वजों द्वारा अभ्यर्चित कहा गया है।
अनेक समाजों के विभिन्न गोत्रों में वे कुलदेवी के रूप में पूजित हैं। सुन्धामाता
का लोक में बहुत माहात्म्य है। वैसे तो प्रतिदिन श्रद्धालु यहाँ आते हैं, पर
वर्ष में तीन बार वैशाख, भाद्रपद एवं कार्तिक मास के शुक्लपक्ष में यहाँ
मेला भरता है, जिसमे प्रदेशों के विभिन्न भागों से श्रद्धालु
देवी-दर्शन कर उनकी अनुकम्पा तथा वांछित फल पाने यहाँ आते हैं।
देवी के इस मन्दिर परिसर में एक प्राचीन शिवलिंग भी विद्यमान है, जो भूर्भुवः सवेश्वर महादेव (भुरेश्वर महादेव) के रूप में विख्यात है । सुन्धामाता के विषय में एक जनश्रुति है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुण्डा अपने सात शक्तियों (सप्तमातृकाओं) सहित यहाँ पर अवतरित हुई , जिसकी मूर्तियाँ चामुण्डा (सुन्धामाता) प्रतिमा के पार्श्व में प्रतिष्ठापित हैं ।
देवी के इस मन्दिर परिसर में एक प्राचीन शिवलिंग भी विद्यमान है, जो भूर्भुवः सवेश्वर महादेव (भुरेश्वर महादेव) के रूप में विख्यात है । सुन्धामाता के विषय में एक जनश्रुति है कि बकासुर नामक राक्षस का वध करने के लिए चामुण्डा अपने सात शक्तियों (सप्तमातृकाओं) सहित यहाँ पर अवतरित हुई , जिसकी मूर्तियाँ चामुण्डा (सुन्धामाता) प्रतिमा के पार्श्व में प्रतिष्ठापित हैं ।
सुन्धामाता का पावन
तीर्थस्थल सड़क मार्ग से जुड़ा है । इसकी सीमा पर विशाल प्रवेश द्वार है, जहाँ
से देवी मन्दिर को जाने वाले पर्वतीय मार्ग को पक्की सीढ़ियाँ बनाकर सुगम बनाया गया
है । पहाड़ी से गिरता झरना अनुठे प्राकृतिक दृश्य का सृजन कर तीर्थ यात्रियों में
उत्साह का संचार करता है ।
सुन्धामाता मन्दिर परिसर के दो खण्ड हैं – प्रथम या अग्रिम
खण्ड में भूभुर्वः स्वेश्वर महादेव का शिव मन्दिर है, जहाँ उक्त शिवलिंग
स्थापित है । इसके आगे दूसरे खण्ड में सुन्धामाता का मन्दिर है जिसमे प्रवेश
हेतु विशाल एवं कलात्मक तोरणद्वार बना है । सीढियाँ चढ़ने पर आगे भव्य
सभामण्डप है जो विशालकाय
स्तम्भों पर टिका है । मन्दिर के प्रथम और मुख्य गुफा कक्ष में सुन्धामाता
या चामुण्डामाता की भव्य प्रतिमा प्रतिष्ठापित है । हाथ में खड्ग और त्रिशूल
धारण किये महिषासुर – मर्दिनी
स्वरूप की यह प्रतिमा बहुत सजीव लगती है । उनके पार्श्व में ऐन्द्री, कौमारी, वैष्णवी, वाराही,नारसिंही, ब्रह्माणी, शाम्भवी आदि मातृ
शक्तियाँ प्रतिष्ठित हैं । इनके अलावा वहाँ विद्यमान देव प्रतिमाओं में ब्रह्मा, शिव-पार्वती, स्थानक विष्णु, शेषशायी आदि प्रमुख
हैं ।
इस देवी मन्दिर में वीणाधर शिव की एक
दुर्लभ देव प्रतिमा है, जिसमे
शिव ऐसे महिष के ऊपर विराजमान है, जिसका
मुँह मानवाकार और सींग महिष जैसे हैं । ऊपर के दोनों हाथों में त्रिशूल, सर्प व निचले दोनों
हाथों में वीणा धारण किये जटाधारी शिवमस्तक के चारों ओर प्रभामण्डल पर मुखमुद्रा
अत्यन्त सौम्य, गले में
मणिमाला धारण किये शिव की यह प्रतिमा एक दुर्लभ और उत्कृष्ट कलाकृति है । देवी
मन्दिर के सभामण्डप के बहार संगमरमर की बानी कुछ अन्य देव प्रतिमाएँ भी
प्रतिष्ठापित हैं जो बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी के आस-पास की कला की परिचायक हैं
। इसमें गंगा-यमुना की प्रतिमाएँ बहुत सजीव और कलात्मक हैं ।